रोग एवं कीट के प्रबंधन हेतु पेस्टीसाइड के कम से कम उपयोग करना है तो  एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन की तकनीक अपनाए
रोग एवं कीट के प्रबंधन हेतु पेस्टीसाइड के कम से कम उपयोग करना है तो  एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन की तकनीक अपनाए

प्रोफेसर (डॉ ) एसके सिंह
विभागाध्यक्ष, पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी, प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना
डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा-848 125, समस्तीपुर,बिहार 

आज कल किसान खेती बारी में रोग एवं कीट के प्रबंधन के लिए पेस्टीसाइड का अंधाधुंध प्रयोग कर रहे है जिससे हमारे कृषि उत्पाद एवं वातावरण दोनों ही विषैला होते जा रहा है, जिससे कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी बहुत ही तेज गति से फैल रही है। आज शायद ही कोई परिवार हो जो इस खतरनाक बीमारी से मुक्त हो। आवश्यकता इस बात की है की किसानों को बताया जाय की इन रोग एवं कीटों के प्रबंधन हेतु एक से ज्यादा विकल्प उपलब्ध है, उनके माध्यम से नाशीजीवों को प्रबंधित किया जाय। रसायनों के माध्यम से नाशीजीवों को प्रबंधित करना अंतिम विकल्प के रूप में लेना चाहिए।इसके लिए एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन के विषय में जानकारी होना चाहिए जिसका प्रमुख सिद्धांत है की रोग एवं कीटों का प्रबंधन बिना रसायनों के या न्यूनतम उपयोग द्वारा किया जाय।आइए जानते है की एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन क्या है।

एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन (Integrated pest management (IPM), या Integrated Pest Control (IPC)) नाशीजीवों के नियंत्रण की सस्ती और वृहद आधार वाली विधि है जो नाशीजीवों के नियंत्रण की सभी विधियों के समुचित तालमेल पर आधारित है। इसका लक्ष्य नाशीजीवों की संख्या एक सीमा के नीचे बनाये रखना है। इस सीमा को 'आर्थिक क्षति सीमा' (economic injury level (EIL)) कहते हैं।

एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन का (आई. पी. एम.) उद्देश्य

  1. फसल की बुवाई से लेकर कटाई तक हानिकारक कीड़ो, बीमारियों तथा उनके प्राकृतिक शत्रुओं की लगातार एवं व्यवस्थित निगरानी रखना।
  2. कीड़ो एवं बीमारियो को उनके आर्थिक हानि स्तर से नीचे रखने के लिए सभी उपल्बध नियंत्रण विधियों जैसे व्यवहारिक, यांत्रिक, अनुवांशिक, जैविक, संगरोध व रासायनिक नियंत्रण का यथायोग्य करना।
  3. कीड़ो एवं बिमारियों के आर्थिक हानि स्तर (ई.आई.एल.) को पार कर लेने पर सुरक्षित कीटनाशकों को सही समय पर सही मात्रा में प्रयोग करना।
  4. कृषि उत्पादन में कम लागत लगाकर अधिक लाभ प्राप्त करने तथा साथ साथ वातावरण को प्रदूषण से बचाना।

वर्तमान समय में जहां एक ओर उत्तम किस्मों के आने से तथा उत्तम फसल प्रबंधन अपनाने से फसल की पैदावार में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी ओर कृषि पारिस्थितिक तन्त्र में भौतिक, जैविक सस्य परिवर्तनों के कारण फसल में तरह-तरह के कीड़ों व बिमारियों में भी वृद्धि हुई है। इन कीड़ो व बिमारियों से छुटकारा पाने के लिए किसानों ने रासायनिक दवाईयों (पैस्टीसाइड) को मुख्य हथियार के रूप में अपनाया। ये कीटनाशकों किसानों के लिए वरदान सिद्ध हुए लेकिन आगे चलकर इनसे अनेक समस्याएं पैदा हो गईं।
अन्धाधुन्ध पैस्टीसाइड के इस्तेमाल से हमारा वातावरण दिन प्रतिदिन ज्यादा से ज्यादा प्रदूषित हा रहा है, जिसका प्रभाव मानव जाति पर तथा अन्य प्राणियों पर भी बहुत बुरा पड़ रहा है। विभिन्न प्रकार की बीमारियां पैदा हा रही है, जिनका इलाज भी आसानी से संम्भव नहीं है।एक ही कीटनाशक के बार-बार प्रयोग करने से कीडों तथा बीमारियों में प्रतिरोध क्षमता बढ जाती है जिससे कीड़े तथा बिमारियां निर्धारित मात्रा में उपयोग से नहीं मरते बल्कि उनकी संख्या कुछ दिनों के बाद और भी बढ़ जाती है जिसे रिसर्जेस कहते हैं। प्रकृति में फसलों को हानि पहुंचाने वाले कीड़ों के साथ-साथ, हानिकारक कीड़ों को मारने वाले कीड़े भी मौजूद रहते हैं जिन्हें किसानों को मित्र कीड़े कहा जाता है। रसायनों के अन्ध-धुन्ध प्रयोग से, ये मित्र किडे़ हानिकारक कीड़ो की अपेक्षा शीघ्र मर जाते हैं क्योंकि ये प्रायः फसल की ऊपरी सतह पर हानिकारक कीड़ो की खोज में रहते है और रसायनो के सीधे सम्पर्क में आ जाते है इस तरह जो प्राकृतिक सन्तुलन दोनों तरह के कीड़ो में पाया जाता है बिगड़ जाता है और हानिकारक कीड़ों की संख्या वढ़ जाती है। इस तरह जो कीड़े अब तक हानि पहुचाने की क्षमता नहीं रखते थे वे भी नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं। इसे सेकेन्ड्री पेस्ट आउट ब्रेक कहते हैं।

एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन (आई. पी. एम.) क्यों ?
दिन प्रतिदिन फसलों में रासायनों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है जिससे रासायनों के अवशेषों की मात्रा भी वातावरण में बढ़ती जा रही है जिससे मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है और कई प्रकार की बीमारियां जन्म ले रही हैं। कृषि रसायनों के अन्धाधुन्ध तथा बिना सोचे समझे बार-बार प्रयोग से कीड़ों तथा बीमारियों में प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाती है जिससे रसायनों के निर्धारित मात्रा का प्रयोग करने से ये कीड़े या बीमारियां नही मरती बल्कि कुछ दिनों के बाद इनकी संख्या और बढ़ जाती है, ऐसी परिस्थिति में रसायनों का प्रयोग करना पर्यावरण के प्रदूषण को बढ़ाना है। फसलों को हानि पहुचानें वाले कीड़े को मारने वाले कीड़े वातावरण में हमेशा मौजूद रहते हैं जिससे हानिकारक तथा लाभदायक कीड़ो का प्राकृतिक संतुलन हमेशा बना रहता है और फसलों का कोई आर्थिक हानि नही पंहुचती। लेकिन रसानिक दवाईयों के प्रयोग से मित्र किड़े शीघ्र मर जाते हैं क्योंकि वे प्रायः फसल की ऊपरी सतह पर शत्रु कीड़ो की खोज में रहते है और कीटनाशकों के साधे संपर्क में आ जाते हैं जिससे प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाता हैं। इसका परिणाम यह होता है कि जो कीड़े अब तक आर्थिक हानि पहुँचाने की क्षमता नहीं रखते थे अर्थात उनकी संख्या कम थी, वे भी नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं। रसायनिक दवाईयों के प्रयोग से किसानों का फसल उत्पादन खर्च बढ़ जाता है जिससे किसानो के लाभ में काफी कमी हो जाती है। रसायनो के दुष्प्रभावों को ध्यान में रखते हुए किसानों के लिये आई. पी. एम. विधि अपनाना अनिवार्य है।

एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन (आई. पी. एम.) का  उपयोग कैसे करें?
बीज के चयन तथा बीजाई से लेकर फसल की कटाई तक विभिन्न विधियां, जो प्रयोग समयानुसार एवं क्रमानुसार आई. पी.एम. विधि में अपनाई जाती है,यथा
1. व्यवहारिक नियन्त्रण
2. यांत्रिक नियन्त्रण
3. अनुवांशिक नियन्त्रण
4. संगरोध नियन्त्रण
5. जैविक नियन्त्रण
6. रासायनिक नियन्त्रण

व्यवहारिक नियन्त्रण क्या है?
व्यवहारिक नियन्त्रण से तात्पर्य है कि परम्परागत अपनाए जाने वाले कृषि क्रियाओं में ऐसा क्या परिवर्तन लाया जाए, जिससे कीड़ों तथा बिमारियों से होने वाले आक्रमण को या तो रोका जाए या कम किया जाए या विधियां हमारे पूर्वजों से चली आ रही है लेकिन आधुनिक रसायनों के आने से इनका प्रयोग कम होता जा रहा है। इसके अंतगर्त निन्मलिखित तरिके अपनाएं जाते है जैसे, खेतों से फसल अवशेषों का हटाना तथा मेढ़ों को साफ रखना। गहरी जुताई करके उसमें मौजूदा कीड़ों तथा बिमारियों की विभिन्न अवस्थओं तथा खरपतवारों को नष्ट करना। खाद तथा अन्य तत्वों की मात्रा निर्धारिण के लिए मिट्टी परिक्षण के अनुसार प्रयोग  करना। साफ, उपयुक्त एवं प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना तथा बोने से पहले बीज उपचार करना।
उचित बीज दर एवं पौध अन्तरण
पौधारोपण से पहले पौधें की जड़ो को जैविक फफूंदनाशक ट्राइकोडरमा बिरडी से उपचारित करें । फसल बीजने और काटने का समय इस तरह सुनिशिचित करना ताकि फसल कीड़ो तथा बीमारियों के प्रमुख प्रकोप से बच सके। पौधें की सही सघनता रखे ताकि पौधे स्वस्थ रहे। समुचित जल प्रबन्धन, उर्वरक प्रबन्धन अर्थात उर्वरक की सही मा़त्रा उचित समय पर देना। फसल की समय से उचित नमी में सन्तुलित खाद व बीज की मात्रा डाले ताकि पौधे प्रारम्भिक अवस्था में स्वस्थ रह कर खरपतवारों से आगे निकल सके। फसल चक्र अपनाना अर्थात एक ही फसल को उसी खेत में बार बार न बोना। इससे कई कीड़ो तथा बीमारियों का प्रकोप कम हो जाता है। समय पर बुवाई करना,खरपतपार का समुचित प्रबन्ध करना। यह पाया गया है कि बहुत से खरपतवार कई तरह की बीमारियों तथा कीडों को संरक्षण देते हैं। बीजाई के 45 दिनों तक खेतों से खरपतवारों को फूल आने की अवस्था से पहले ही निकाल दें।

यांत्रिक नियन्त्रण
कीड़ों के अण्ड समूहों, सूडियों, प्यूपों तथा वयस्कों को इकट्ठा करके नष्ट करना। रोगग्रस्त पौधों या उनके भागों को नष्ट करना।कीड़ो की निगरानी व उनको आकर्षित करने के लिए फिरामोन ट्रेप का प्रयोग करना तथा आकर्षित कीड़ो को नष्ट करना।हानिकारक कीट सफेद मक्खी व तेला के नियन्त्रण के लिए यलो स्टिकी ट्रेप का प्रयोग करे।

अनुवांशिक नियन्त्रण 
इस विधि से नर कीटों में प्रयोगशाला में या तो रसायनों से या फिर रेडिऐशन तकनिकी से नंपुसकता पैदा की जाती है और फिर उन्हें काफी मात्रा में वातावरण में छोड़ दिया जाता है ताकि वे वातावरण में पाए हाने वाले नर कीटों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। लेकिन यह विधि द्वीप समूहों में ही सफल पाई जाती है।

संगरोध नियन्त्रण
इस विधि में सरकार के द्वरा प्रचलित कानूनों को सख्ती से प्रयोग में लाया जाता है जिसके तहत कोई भी मनुष्य कीट या बीमारी ग्रस्त पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थानों को नहीं ले जा सकता। यह दो तरह का होता है जैसे घरेलू तथा विदेशी संगरोध।

जैविक नियन्त्रण 
फसलों के नाशीजीवों (pests) कों नियन्त्रित करने के लिए प्राकृतिक शत्रुओं को प्रयोग में लाना जैव नियन्त्रण कहलाता है।फसलों को हानि पहुँचाने वाले जीव नाशीजीव कहलाते है।
प्राकृतिक शत्रु
प्रकृति में मौजूद फसलों के नाशीजीवों के नाशीजीव 'प्राकृतिक शत्रु', 'मित्र जीव', 'मित्र कीट', 'किसानों के मित्र', 'बायो एजेंट' आदि नामों सें जाने जोते हैं। जैव नियन्त्रण एकीकृत नाशीजीव प्रबधन का महत्वपूर्ण अंग है। इस विधि में नाशीजीवी व उसके प्राकृतिक शत्रुओ के जीवनचक्र, भोजन, मानव सहित अन्य जीवों पर प्रभाव आदि का गहन अध्ययन करके प्रबन्धन का निर्णय लिया जाता है।
जैव नियन्त्रण के लाभ 
जैव नियन्त्रण अपनाने से पर्यावरण दूषित नहीं होता है। प्राकृतिक होने के कारण इसका असर लम्बे समय तक बना रहता है। अपने आप बढ़ने (गुणन) तथा अपने आप फैलने के कारण इसका प्रयोग घनी तथा ऊँची फसलों जैसे गन्ना, फलादार पौधों, जंगलों आदि में आसानी से किया जा सकता है।केवल विशिष्ट नाशीजीवों पर ही आक्रमण होता है अतः अन्य जीव प्रजातियों, कीटों, पशुओं, वनस्पतियों व मानव पर इसका काई प्रभाव नहीं होता है। अवशिष्ट प्रभाव नहीं होता है अतः फसल उपयोग के लिए काई प्रतीक्षा समय नहीं होता है। इनका उपयोग सस्ता होता है। किसान अपने घर पर भी इनका उत्पादन कर सकते हैं।
रासायनिक विधि द्वारा रोग कीट का प्रबंधन
रोग ,कीट खरपतवार के साथ साथ अन्य नाशीजीवो के प्रबंधन के लिए नित्य प्रतिदिन नए नए मॉलिक्यूल्स आ रहे है। इनका प्रयोग करके विभिन्न नाशीजीवों को बहुत आसानी से प्रबंधित किया जा सकता है ,आवश्यकता केवल इस बात की है की हमे इनका इस्तेमाल अंतिम विकल्प के रूप में करना चाहिए। कभी भी इनका प्रथम विकल्प के रूप में नहीं करना चाहिए। वैज्ञानिकों द्वारा सस्तुत पेस्टीसाइड पूर्णतया सुरक्षित है, बसरते हम उनका उपयोग  बताए गए तरीके से करें। इनका बहुत ही दुर्पयोग हो रहा है। वैज्ञानिक सलाह है की कभी भी फसल की कटाई या तुड़ाई के 15 दिन के अंदर कोई भी पेस्टीसाइड का उपयोग ना करें। पेस्टीसाइड के पैकेट पर लिखे हुए निर्देशों का पूर्णतया पालन करना चाहिए।